पत्थर के खुदा पत्थर के सनम,
पत्थर के ही इन्सां पाये हैं,
तुम शहर-ए-मोहब्बत कहते हो,
हम जान बचा कर आये हैं |
बुत खाना समझते हो जिसको,
पूछो ना वहां क्या हालत है,
हम लोग वहीँ से लौटे हैं,
बस शुक्र करो लौट आये हैं |
हम सोंच रहे हैं मुद्दत से,
अब उम्र गुज़रें भी तो कहाँ,
सेहरा में ख़ुशी के फूल नहीं,
शहरों में गमों के साये हैं |
होठों पे तब्बस्सुम हल्का सा,
आँखों में नमी सी है 'फाकिर',
हम अहेले मोहब्बत पे अक्सर,
ऐसे भी ज़माने आये हैं |
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