Sunday, January 23, 2011

झूठी सच्ची आस पे जीना


झूठी सच्ची आस पे जीना, कब तक आख़िर, आख़िर कब तक,
मय कि जगह खून–ए–दिल पीना, कब तक आख़िर, आख़िर कब तक ।

सोचा हैं अब पार उतरेंगे, या टकरा कर डूब मरेंगे,
तूफानों कि ज़द पे सफि़ना, कब तक आख़िर, आख़िर कब तक ।

एक महिने के वादे पर साल गुज़ारा फिर भी ना आये,
वादे का ये एक महिना, कब तक आख़िर, आख़िर कब तक ।

सामने दुनिया भर के ग़म हैं और इधर इक तन्हा हम हैं,
सैंकड़ो पत्थर एक आईना, कब तक आख़िर, आख़िर कब तक ।

Lyricist : Kashif Indori

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